यह काली रात का भी;
एक अंत, ज़रूर होगा !
तेरे जीवन का सवेरा ,
तू जगेगा उस दिन से शुरू होगा ।
मगर, सवेरे के इंतेज़ार में, इस रात को ;
कुछ, यूँ भी काली न होने दे !
जागने की ख्वाहिश में ;
सोने को ख्वाहिश भी,
कुछ यूं न बना ले :
"के, समय कब मौका देगा?
पता भी न चलेगा !
न सोना , जाग न पाने की,
वजह कब बन जाए !
पता भी न चलेगा !"
के अभी इस रात को,
साथी बना,इससे घुल-मिल ज़रा !
"सवेरा भी आएगा", यह कहती है ;
इसे भी तो, सुन ज़रा ।
अब इस रात के मज़े लेना सिख जा !
भोर को फिर जगना है प्यारे !
तू अब निद्रा ले ज़रा ।
कल सवेरा, तेरा ज़रूर होगा ।
अब रात का, चादर ओढ़ सोजा ज़रा ।
अंधेरा अगर तेरा है तो,
सवेरा भी होगा ही न !
इस बात का अर्थ समझ ज़रा ।
कल सवेरा तेरा ज़रूर होगा !
मगर, अब तू सो-जा ज़रा ।
जागने के खातिर, सोना ज़रूरी है न !
इसलिए, अब तू सो-जा ज़रा ।
अब, तू सोजा ज़रा ।।
~~ FreelancerPoet